सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

कुछ मीठा हो जाये







टीवी पर कैटबरी चॉकलेट का एक विज्ञापन आजकल युवाओं और टीनेजरों के बीच खासा लोकप्रिय है। इसमें एक लड़ बस स्टाप पर चाकलेट खाती एक लड़की से चाकलेट का टुकड़ा मांगता है, क्या मैं आपको जानती हूं? कहकर लड़की इनकार कर देती है। मेरी मां कहती है कोई शुभ काम करने से पहले मीठा जरूर खाना चाहिए ,कहकर लड़का सफाई देता है। साफगोई और मां की बात सुनकर लड़की उसे चाकलेट का एक टुकड़ा दे देती है साथ ही पूछ लेती है आप कौन सा शुभ काम करने जारहे थे। जवाब होता है मैं आपको घर छोड़ना चाहता हूं। और दोनों मुस्कुराते हैं।
मतलब हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा हो गया। दूसरे का चॉकलेट लेकर उसे खिलाकर आप दोस्ती कर सकते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अब मुंह मीठा करने का मतलब मिठाई या गुड़, खीर, सेवई, फिरनी, दही शPर न होकर चॉकलेट खाना हो गया है। इससे पहले पप्पु पास हो गया के विज्ञापन मे भी मिठाइयों पर चॉकलेटों की जीत दिखाई जाती रही है।
त्योहरों के लिए भी ये कंपनियां काफी पहले से तैयारी करती हैं। त्योहार पर इनके स्पेशल पैकेट और पैकेज आते हैं। मध्य वर्ग निम्न वर्ग, उच्च वर्ग को ध्यान मे रखकर अलग अलग वेरायटी, रेट और टेस्ट लांच किए जाते हैं। इनके इतने प्रचार प्रसार का ही नतीजा है कि अब त्योहारों मे और घर घर के पप्पुओं के पास होने पर चॉकलेट खिलाकर खुशियां मनाई जाने लगी हैं। शादियों में भी मिठाइयों के साथ एक खेप चॉकलेट की भी वर वधू की ओर से भेजी जाती है।
मिठाई की जगह चॉकलेट का प्रवेश सिर्फ मिठास और स्वाद मे अन्तर की बात नहीं है बल्क यह हमारी संस्कृतिको रौन्दने की गुपचुप कोशिश है। मिठाईयां त्योहारों या अन्य दिनों में खाया जाने वाला खाद्य पदार्थ ही नहीं हैं वरण वे हमारी संस्कृति हमारे जीवन का हिस्सा हैं। त्योंहारों पर घर मे बनी मिठाईयों में सिर्फ शक्कर का स्वाद नहीं होता बçल्क उनमें त्योहार का उल्लास, मेहनत की खुशबू और प्यार की मिठास होती है।
जरा उस दिन की कल्पना कीजिए जब होली में गुçझए माल पुए, रक्षा बंधन में मिठाइयं, दीपावली में लड-्डू या अन्य मिठाईयां, दशहरे, पन्द्रह अगस्त, छब्बस जनवरी में जलेबी, तिल संक्रंाति में तिल मुरही लड्डू, छठ मंे ठेकुआं, रामनवमी के रोट, शादीयों में बनने वाले खाजा, गाजा, बालूशाही, बताशे सबकी जगह सिर्फ चॉकलेट ही होगे तो क्या होगा? कैसा त्योहार होगा हमारा। आज एड फिल्म और रंग बिरंगे रैपर्स के कारण जो चॉकलेट लुभावने लगते हैं। क्या वे मिठाइयों की जगह ले सकेंगे? लेकिन बाजर की ताकत हमारे मन मस्तिष्क मंे यह भरने की लगातार कोशिश कर रहा है कि ये मिठाईयों के बेहतर विकल्प हैं।
बाजार इनका इतने जोर शोर से प्रचार इसलिए कर पात है क्योंकि ये खास नाम वाले अथाüत ब्राण्ड के होते हैं। बाजारवाद को देखते हुए हम चाह कर भी देसी रसगुल्ल्ो , बरफी या अन्य मिठाईयों की ब्राण्डिंग नहीं कर सकते । देश भर में घर घर, गली मुहल्ले की दुकानों या ठेले ,गांव के मेले मेंबिकने वाली ये मिठाईयां çकसी एक कंपनी के एकाधिकार मंे न हैं और न होने की संभावना ही है। ऐसे में बाजारवाद के खिलाफ खड़े होकर कौन इनका प्रचार करेगा। इनके विज्ञापन में करोड़ों रूपये खर्च करेगा। हमारी विविधता की संस्कृति ऐसी है कि एक ही मिठाई जितने हाथ से बनेगी उसमें उतने प्रकार के स्वाद आ जायंेगे। अथाüत अगर अपनी विविध मिठास से भरी संस्कृति को बचाना है तो हर çकसी को अपने स्तर पर ही प्रयास करना होगा। नूतन का स्वागत करना चाहिए पर उतना ही जितने से पुरातन •े अस्तिव पर न बन आए।