सोमवार, 24 मई 2010

एक छोटी सी मुलाकात नामवर सिंह से


कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए गुंजाइश कम है
। समालोचना के पितामह के नाम से विख्यात नई कहानी, नई कविता के नये प्रतिमान रचने वाले नामवर सिंह से छोटी सी मुलाकात-
- माक्र्स के बाद का विश्व काफी बदल चुका है। पर माक्र्सवाद के सिद्धान्तों में फेर- बदल नहीं हुए हैं। कम्युनिस्ट पाटीoयों की असफलता के पीछे यही कारण तो नहीं?
एक दौर था जब संसार के अधिकतर भाग में कम्युनिस्ट पाटीo की सरकार थी। भारत में भी सबसे सशक्त विपक्ष पाटीo कम्युनिस्ट पाटीo ही थी। पर धीरे-धीरे रूस,चीन में खत्मा हुआ और दूसरी जगहाें पर भी। एक समय भारत में कई राज्यों में कम्यूनिस्ट पाटीo काफी मजबूत अवस्था में थी। बाद में विकास की अवधारणा बदली। राजनीति का स्वरूप बदला और आरक्षण जैसी चीजें आ गई। दूसरी पाटीoयां कम्युनिस्ट पाटीo के एजेण्डे लेकर सामने आ रही हैं। अब कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए गुंजाइश कम है।
-अब पूंजीवाद अपने नये रूप में सामने आ गया है। इससे कैसे निकला जाएगा।
नये अर्थतन्त्र के कारण परिवर्तन तो आया है। एक शेर इस मसले पर सटीक है-
शेख ने मजिस्द बना, मिस्मार बुतखाना किया
तब तो एक सूरत भी थी,अब साफ वीराना किया।
यही हाल है अब और पूंजीवाद का नया स्वरूप कुछ ऐसा है। माक्र्स ने कहा था पूंजीवाद के अन्दर ही इसका इलाज है। क्षमताओं आवश्कताओं के बीच सन्तुलन बैठाकर हल निकल सकता है। यूं विकास के लिए पूंजीवाद जरूरी है लेकिन पूंजीवाद कैपिटलाइज करती है। चीजों को निर्जीव बना देती है। ताजा उदाहरण्ा आईपीएल प्रकरण है। पूंजीवाद के छूते ही बल्ले से सोना उछलने लगा और परिणाम सामने है। इसलिए सावधानी अपेक्षित है।

-ज्ञानरंजन के प्रलेस छोड़ने को आप किस रूप में देखते हैं
ज्ञानरंजन पहल के लिए समिर्पत रहे हैं। उनका कोई साहिित्यक संगठन नहीं भी था और अब तो पहल भी बन्द हो गई है। जाने कब से उन्हाेंने प्रलेस की मीटिंग, संगोष्ठी में जाना बन्द कर दिया था। इसलिए उनका प्रलेस से जाना कोई बड़ी क्षति नहीं रहा।
-प्रलेस की प्रगति सन्तुष्ट करने योग्य है?
वर्तमान में तीन संगठन कार्य कर रहे हैं- प्रलेस, जलेस और जसम। इनमें सबसे अधिक सक्रिय प्रलेस ही है। इसकी पाटीo से भी बड़ा इसका कद है और इसका मंच भी बड़ा है। इसकी पत्रिका वसुधा काफी अच्छी निकल रही है। बेस बड़ा हो तो अधिरचना बड़ी होती ही है। जलेस का पाटीo की अपेक्षा सांस्कृतिक मंच बड़ा है और नये लेखक इससे जुड़े भी है। लेकिन इसकी सक्रिया प्रलेस से काफी कम है। और जसम तो काफी पिछे है।
-क्या परसाई जी के बाद व्यंग्य विद्या का उत्रोत्तर विकास हुआ है या वो वहीं ठहरी हुई है।
परसाई व्यक्ति न होकर संस्था थे। कोई भी विषय उनकी पैनी नज़र से छूटा नहीं खास कर राजनीति मंें उनका पैनापन देखने योग्य है। और यह सब उन्होंने जबलपुर में रहते हुए किया। वे लेखन के प्रति जितने समिर्पत थे और जितना लिखा उतना तो किसी ने लिखा भ्ाी नहीं है। हिन्दी में दूसरा परसाई होने की संभावना नहीं है।
समालोचना में नई प्रतिभाएं सामने आ रही हैं लेकिन पाठ्यक्रम से समालोचना गायब हो रहे हैं
पाठ्यक्रम से समालोचना गायब करके कुछ हासिल नहीं होगा क्योंकि परीक्षा से गायब करना किसी के वश में नहीं हैं। हां यह एक बड़ी अच्छी बात है कि युवा समालोचक काफी अच्छा लिख रहे हैं। और समालोचना के अच्छे भविष्य की ओर इशारा कर रहे हैं।
पत्रकारिता की आज की स्थित पर क्या कहना चाहेंगें
इंटरनेट क्रान्ति ने पत्रकारिता का नक्शा और ढांचा बदल दिया है। छापे वाली पत्रकारिता दूसरी तरह की चीज हो गई है। पत्रकारिता का सच यह है कि अब पेड न्यूज छप रही है। पत्रकार नाम की संस्था खत्म हो गई। पूंजीवाद हावी हो गया है। भाषायी पत्रकारिता का हाल बुरा है। सम्भवत: मलयालम पत्रकारिता ठीक है। बल्कि मैं कहूंगा कि हिन्दी पत्रकारिता ने मुझे बहुत निराश किया है।
-पत्रकारिता की भाषा को लेकर कई सवाल उठते रहते हैं। पत्रकारिता कहती है वो आम आदमी की भाषा से जुड़ रही है आप इस विषय में क्या कहना चाहेंगे
कौन कहता है यह आम आदमी की भाषा है। आज तो हिंिग्लश लिखा जा रहा है। आज के पत्रकार भूल गए हैं कि मुंह से पहले कान खुले रखने चाहिए। भाषा की ताकत से अनजान कुछ भी लिखते- कहते रहते हैं। कमला खान और विनोद दुआ जैसे पत्रकार भी हैं। उनकी लोकप्रियता बताती है कि आम आदमी अच्छा पसन्द करता है।
-नक्सलवाद से देश भर के लेखक जुड़ रहे हैं। हिन्दी साहित्य में इस पर रचनाएं क्यों नहीं आ रही हैं।
क्रान्तिकारी विचार कई शक्ल में आते हैं। ऐसी रचना तब बाहर आती है जब गुस्सा दर्द में बदलता है। हलांकि कुछ काम हुआ है पर अभी और बाकी है। क्रोध करूणा दोनों एक साथ होगी तो इससे सम्बंधित चीजें बाहर आयेंगी।