रविवार, 25 अक्तूबर 2009

छठ पूजा विधि



ये मेरे लेखन की ही कमी है की मैं छठ के बारे में सही जानकारी नहीं दे सकी. छठ के दौरान लोग सूर्य देव की पूजा करतें हैं , इसके लिए पानी में खड़े होकर उगते और डूबते सूर्य को सूप में प्रसाद चढाते हैं और लोग दूध से अर्ध्य देते हैं प्रसाद बाद में लोगो को वितरित कर दी जाती है. मैं अपनी रिपोट भी पेश कर रही hun

कमर तक पानी में डूबे लोग, हाथ में दीप प्रज्ज्वलित, नाना प्रसाद से पूरित सूप और पास ही लोटे से दूध और जल की गिरती धार, आस-पास गूंजते छठी मैया के गीत। आस्था और विश्वास का यह दृश्य शनिवार को छठ पर्व के दौरान देखने को मिला...
डाला छठ के संझा अरग के दौरान ग्वारीघाट, हनुमान ताल में लोगों का हुजुम उमर प़ड़ा और सारा वातावरण छठ मय हुआ।

सूर्य को दिया गया अघ्र्य- छठ व्रती
महिला और पुरुषों ने घाट पर पहुंचकर स्नान किया। िफर गीले वस्त्रों में ही पश्चिम मुख होकर अस्ताचलगामी सूर्य की आराधना की। छठ व्रती ने सूप में पूजा सामग्री लेकर आराधना की और 5.30 बजे डूबते सूर्य को जल और दूध से अघ्र्य दिया। हनुमानताल में सफाई न होने के कारण लोगों ने घर से नहाकर पूजा की।
हो ही गया इंतजाम- तमाम परेशानियों के बीच लोगों ने छठ के पारंपरिक सामग्री की व्यवस्था कर ही ली। फल-फूल की महंगाई से आस्था विचलित नहीं हुई। छठ व्रती के हाथ पक़ड़े सूप में पूजा में शामिल आठ फल, ठेकुआ, नारियल के साथ ही दीप झिलमिला उठे। घाटों पर अघ्र्य के लिए दूध बांटा गया।
गीतों और ढोल से गूंजे घाट- छठ पूजा के दौरान ग्वारीघाट, हनुमानताल और छठ ताल के घाट पर छठी मैया के गीत से वातावरण गुंजायमान हो गया। जिनके घर में नई शादी हुई थी या नये मेहमान के आने की खुशी थी, उन्होंने खूब ढोल बजवाए। बच्चों ने आतिशबाजी भी की।
अपूर्व हुई सजावट- छठ के लिए सजे घाटों का सौन्दर्य देखने योग्य था।
रंगबिरंगी लाइटों की जगमग रोशनी, झिलमिल पानी में डूबता सूरज और आस-पास भक्तिभाव से ख़ड़े लोग, आस्था का यह नजारा देख सबका मन प्रसन्न हो गया। चाराें ओर लोगों ने बिहारी स्टाइल में घाटों में ईख से अपना-अपना क्षेत्र आरक्षित किया था।
निकल गए स्वेटर- छठ के दौरान नदी किनारे की ठण्डी हवा ने सबको स्वेटर पहनने पर मजबूर किया। आज सुबह वाले अघ्र्य के समय तो हर किसी के तन पर स्वेटर/जैकेट और गले में स्कार्फ होगा।
रविवार को दूसरा अरग- रविवार की सुबह सूर्य किरण दिखते ही लोगों ने उदयाचल सूर्य को अघ्र्य देकर नमस्कार किया।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

छठ हो गया शुरू




बिहार-यूपी के लोग कर रहे छठ पूजा का आयोजन
बिहार के सुप्रसिद्ध पर्व छठ पूजा की शुरुआत हो चुकी है। यूपी-बिहार के काफी लोग जबलपुर में भी निवास करते हैं। छुट्टियों की कमी, रिजर्वेशन न मिलना या यहीं बस जाने वाले लोग पूरे हर्ष-उल्लास से डाला छठ का आयोजन कर रहे हैं। खरना के कारण आज हर तरफ सूर्यदेव की आराधना के पर्व की धूम है-
आदि देव सूर्य की आराधना ऐसे तो संसार में कई जगह होती है, पर यही त्योहार ऐसा है जहां अस्ताचलगामी और उदयांचल सूर्य की पूजा की जाती है।
मनाया गया नहाय-खाय

चार दिन तक चलने वाले इस त्योहार का पहला दिन नहाय-खाय का होता है। गुरुवार को नहाय-खाय की पूजा पारंपरिक उल्लास के साथ संपन्न हुई। इस दिन नहाने के बाद सूर्य को नमस्कार कर भोजन ग्रहण करने का रिवाज है। प्रसाद में चने की दाल और लौकी अनिवार्य होती है।

आज होगी खरने की पूजा-
मुख्य व्रत आज ही प्रारंभ होगा। दिनभर उपवास के बाद शाम को नये चावल की खीर का भोग लगेगा और उसका वितरण किया जायेगा।

पहला अरग कल-
शनिवार को पहला अरग अर्थात सूर्य अघ्र्य का पहला दिन होगा। नदी या तालाब में गीले शरीर से दूध और पानी से डूबते सूरज को अघ्र्य दिया जायेगा।
दूसरा अरग और पारन-
दूसरे अघ्र्य के दिन ही पूजा के बाद छठ व्रती 36 घंटे के उपवास के बाद पारन करते हैं। सुबह उगते सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है।
आयोजन में हो रहीं दिक्कतें-
छठ पूजा में पवित्रता का काफी ध्यान रखना प़ड़ता है। यहां छठ पूजा करने वालों को सभी सामान उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। कच्ची हल्दी, अदरक, सुथनी, अरता जैसी चीजें बिहार में आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, पर यहां के बाजार में नहीं हैं। यही हाल आम की लक़ड़ी और गन्ने के सूखे रेशे का है। इसी प्रकार यहां जिनके पास अपनी चक्की है वे तो गेहूं पीस चुके हैं, पर बहुत से लोग मिलों में छठ पूजा के लिए अलग आयोजन नहीं हो पाने के कारण फल से पूजा करने को विवश हैं।
घाट हो गए साफ-
पहले अरग के दिन सूर्य को अघ्र्य देने के लिए लोग ग्वारीघाट, छठ ताल, हनुमानताल में मुख्य रूप से जाते हैं। हनुमानताल में छठ पूजा को लेकर साफ-सफाई की गई है। रांझी के छठ ताल में पन्द्रह दिन पहले से ही लोग अपने घाट आरक्षित कर रहे हैं। असुविधा को देखते हुए बहुत से लोगों ने अपनी छत पर ही अघ्र्य की व्यवस्था कर ली है।
ग्रामीण जीवन का पर्व-
छठ पूजा ग्रामीण जीवन का पर्व है। गांव में नये अन्न का महत्व अधिक होता है। छठ पूजा में इस मौसम में आने वाले हर नये अन्न फल-फूल से पूजा की जाती है।

आस्था का चरम-
चार दिनों का यह त्योहार शुद्धता और आस्था का चरम रूप होता है। पूजा का हर सामान नियम और निष्ठा के साथ साफ किया जाता है। यहां तक की चिि़ड़यों और कौओं का जूठा सामान भी नहीं च़ढ़ाते हैं।

पौराणिक संदर्भ-
छठ पूजा का पौराणिक संदर्भ भी है। कहते हैं द्वापर में जब पाण्डव वनवास कर रहे थ्ो और उन्हें विजय का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था, तब द्रौपदी ने धैम्य ऋषि से सहायता मांगी। धैम्य ऋषि ने उन्हें सतयुग की कथा सुनाते हुए छठ व्रत करने की सलाह दी। उसी समय से छठ व्रत मनाया जा रहा है।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

नाटक में लानी होगी और भी क्वालिटी



एनएसडी के प्रोडक्ट और थियेटर तथा िफल्मी दुनिया के जाने- माने कलाकार मनोहर तेली किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उदयपुर के छोटे से गांव में जन्में तेली जी न सिर्फ मंझे हुए रंगकर्मी हैं बल्कि उनकी िफल्म गॉडफादर भी 6 राष्ट्रीय अवार्ड प्राप्त कर चुकी है। जबलपुर रंग विनिमय-09 के के दौरान जबलपुर आये तेली जी से कुछ खास बातचीत- आप चार साल के बाद जबलपुर आये हैं कैसा लगा, क्या- क्या देखा यहां?
सच्ची बात बताऊं तो मैं इतनी बार जबलपुर आया हूं पर कहीं नहीं जाता भेड़ाघाट भी नहीं। जबलपुर मेरे लिए परसाई जी की धरती है। मैंने एक बार उनका घर, वो कमरा जहां बैठ कर वे लिखते थे, सब देख लिया अब और कुछ देखने की तमन्ना नहीं है।
पिछली बार आपने यहां संक्रमण का मंचन किया था और इस बार भी वहीं नाटक कर रहे है ऐसा क्यों?संक्रमण काफी प्रसिद्ध नाटक है। इसबार भी मेरे पास इसके लिए ही प्रस्ताव आया इसलिए इसे ही प्ले कर रहा हूं।
आप सिर्फ अभिनय करते हैं या लेखन आदि दूसरी विधा में भी हाथ आजमाने का इरादा है।
मेरी पहचान मेरे अभिनय से है पर लिखता भी हूं। मैंने कई नाटक लिखे हैं। एक िफल्म भी लिखी है। मेरे नाटक रहनुमा को जवाहर कला केंद्र की ओर से सर्वश्रेष्ठ का खिताब मिला है। मेरी कहानी पर बनी िफल्म श्रम को भी काफी सराहना मिली।
आपको कब लगा कि आप अभिनय के लिए ही बने हैं, क्या बचपन से ही अभिनय करते रहे हैं।
नहीं अभिनय मैंने ग्रेजुएशन से करना शुरू किया। उस समय लगा अभिनय से पेट नहीं भर सकता इसलिए बीएड कर ली और गर्वनमेंट टीचर की नौकरी भी। पर थियेटर करता रहा। साथ में आइएएस की तैयारी भी शुरू की। पर रोज ही लगता था मैं 10- 5 की नौकरी के लिए नहीं बना हूं। मन को संतुष्टी थियेटर करने से ही मिलती थी। िफर एनएसडी ज्वाइन किया और दिल्ली से उदयपुर और उसके मुंबई पहुंच गया।
एनएसडी में सरकार एक छात्र पर कम से कम एक करोड़ रुपये खर्च करती है पर वे पास आउट होने के बाद मुंबई ही क्यों जाते हैं?
बात एनएडी की नहीं है बात है एक आदमी के पास पेट और मन दोनों होता है। मन को थियेटर चाहिए तो पेट को रोटी। इसी रोटी और पैसे के लिए आदमी मुंबई का रूख करता है।
तो क्या अभिनय के लिए रूपहला पर्दा अंतिम जगह है?
नहीं, अंतिम जगह नहीं है। पर रूपहले पर्दे पर काम करके पैसे की पूिर्त होती है। मन तो वहां भी संतुष्ट नहीं होता। आदमी स्वीच के इशारे पर चलता है- बस चुप हो जाओ। एक्शन, स्टार्ट, रीटेक। मैं जब मुंबई नहीं गया था तो एक ईंट भी अपने घर में नहीं लगा पाया पर मुंबई गया तो 15 लाख का मकान बना सका। यही अंतर है दूसरी जगह और मंुबई में।
जब माया नगरी में काम नहीं होता तो कलाकार थियेटर की ओर लौटता है। इस बीच के गैपिंग को वो कैसे भरता है?
यह सही है कि आदमी को कभी थियेटर नहीं छोड़ना चाहिए, यही उसकी जड़ होती है। जड़ों के बिना आदमी कहां टिक सकता है। जो लोग लौटकर आते हैं वे िफर जीरो से शुरू करते हैं। इस दौरान लोग उन्हें भूल चुके होते हैं उनकी जगह कोई और ले लेता है।
क्या नये और प्राइवेट संस्थानों के बीच एनएसडी का महत्व कम हो रहा है
लोग ऐसा कहते हैं पर मैं इसे सच नहीं मानता। मैं जो कुछ भी हूं इसकी बदौलत ही हूं। वर्ना जो मेरी आथिoक परिस्थिति थी मैं 12- 14 लाख रुपये खर्च करके कोर्स नहीं कर पाता। यह है कि वहां कौन से लोग हैं इसका थोड़ा सा प्रभाव पड़ता है।
एनएसडी के माध्यम से सरकार गांव- गांव तक नाटक और थियेटर को पहुंचाना चाहती है, वहां से पास आउट लोग इसके लिए क्या करते हैं, वे क्या कर सकते हैं?
सरकार की स्कीम तो ह ैइसके लिए फंड भी होते हैं उनके पास। लेकिन दिक्कत है कि गांव या छोटे शहरों में वर्कशाप लगाने को कोई तैयार नहीं होता। सरकारी अमले में भी लोग पैसा देने को तैयार हो जाते हैं पर जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते। कोई अकेले गांव में जाकर वर्कशाप लेने को तैयार नहीं होता। अब तो सरकार स्कूल कॉलेजों में ड्रामा टीचर भी रखने वाली है।
आप खुद छोटे जगह से हैं आपको नहीं लगता छोटे गांवों में जाकर वर्कशॉप करना चाहिए वहां की प्रतिभाओं को सामने लाना चाहिए।
करना तो चाहिए पर जो लोग बाहर निकल जाते हैं िफर गांव जा नहीं पाते। हमें बड़े थियेटरों और लाइट सुविधाओं की आदत हो गई है। गांव के लोगों को सबकुछ शुरू से सिख्ााना पडेगा इसलिए टेंशन नहीं लेता हूं।
हिंदी में नाटकों की कमी क्यों हैं अधिकतर पुराने नाटक या कहानी, कविता का मंचन किया जा रहा है?
कहानी की कमी नहीं है। हिन्दी में एप्रोच की जरूरत होती है। कोई क्वालिटी की ओर ध्यान नहीं देता इसलिए अच्छी प्रतिभाएं सामने नहंी आती हैं। यहां तो घोस्ट राइटिंग का चलन है। लिखता कोई है उसे अपने नाम से कोई और प्रमोट करवाता है।
हिन्दी का थियेटर मराठी या बंग्ला की तरह समृद्ध क्यों नहीं।
यहाँ नाटक को लेकर दर्शको में वो उत्साह नहीं है। आज भी नाटक आम आदमी का न होकर इलिट वर्ग की चीज है। हमारे यहां की कहानियां भी आम आदमी की नहीं होती। यहां भी दर्शक को थियेटर तक खींच कर लाना होगा। अभी तो लोगों को नाटक देखने की आदत लगानी होगी नाटक में भी क्वालिटी देनी होगी। उसके बाद ही वह अपने जेब से पैसे निकालेगा।
हिन्दी िथ्ायेटर की इतनी सारी समस्याओं को देखते हुए आपने इसके समाधान के बारे में क्या सोचा है?
मैं समस्याओं पर कई बार चिंतन करता हूं। यह भी सोचता हूं कि आदमी को पर्दे की जगह थियेटर के बारे में ज्यादा सोचना चाहिए। पर कुछ सुझता नहीं है तो चादर ओढ़ कर सो जाता हूं।