रविवार, 26 जुलाई 2009

जबलपुर की नागपंचमी


प्रदेश में संस्कारधानी एक ऐसा शहर है जहां आज भी त्योहारों को लेकर उतनी ही आस्था है जितनी पुराने जमाने में होती थी ऐसा हमारा नहीं दूर- दूर से आये सपेरों का कहना है जो पैसों के लिए नहीं वरन त्योहारों को जीवित रखने की परंपरा को देख यहां आते हैं। यूं तो साल भर भले ही हम सांपों से दूर- दूर रहने की कामना करते हों पर नागपंचमी पर उनकी पूजा करने को आतुर रहते हैं। नागमंचमी के लिए दो दिन पहले ही सपेरों का दल आ पहुंचा। आपको शायद विश्वास न हो पर यह सच है संस्कारीधानी (जबलपुर)का नागों के प्रति लगाव देखकर हर वर्ष नागपंचमी के अवसर पर मथुरा, वृन्दावन, आगरा, इलाहाबाद, छत्त्ाीसगढ़ आदि जगहों से सपेरे आते हैं। इसबार भी पांच सौ के लगभग सपेरे बाहर से आये हैंं। मथुरा से आये रामजीलाल बताते हैं वे लोग 50- 55 साल से यहां आते हैं। यहां आने में खर्च बहुत लगता है और बचत भी नहीं होती पर संस्कारधानी और यहां के निवासियों के स्नेह के कारण वे लोग हर साल चले आते हैं। उनके अनुसार महाकाल की नगरी उज्ज्ौन में भी इतनी श्रद्धा देखने को नहीं मिलती और न ही इतने सपेरे वहां जाते हैं। दूर- दारज से आये इन सपेरों की शहर में विशेष कमाई नहीं होती। ये सपेरे खेतिहर मजदूरी या किसानी करते हैं। लेकिन नागपंचमी के अवसर पर अपने खानदानी पेशे और संस्कृति की रक्षा के लिए ये सांप पकड़ने और लोगों तक पहुंचाने में लग जाते हैं। सपेरे खुद को नाग की संतान मानते हैं और पूजा के अवसर पर अपना कामधाम छोड़कर सांपों को लोगो तक पहुंचाना अपना धर्म मानते हैं। सपेर नागपंचमी के लिए सांप को पकड़ते हैं। उन्हें मंत्र और जड़ी बूटी सूंघा कर अपने साथ रखते हैं जिससे सांप किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। इन सांपों को सपेर अधिकतम ग्यारह दिन तक अपने पास रखते हैं। इस दौरान इन्हें शाकाहार (चावल का माड़ और दूध ) ही खाने को दिया जाता है। नागमंचमी के बाद अधिकर सपेरे सांपों को ग्वारीघाट के आस- पास जंगलों में छोड़ देते हैं और वापस अपने घर चले जाते हैं। नागों के प्रति लोगों की आस्था पहले इतनी गहरी थी कि नागपंचमी आठ दिनों का त्योहार हुआ करता था। इस दौरान कबड्डी और दूसरे खेल प्रतियोगिताओं के अलावा बीन की प्रतियोगिता भी हुआ करती थी। सपेरों के बीन सुनने के लिए महिफलें जमती थीं। पर जब से मप्र. वन्य प्राणी अधिनियम ने सांपों के पूजन के लिए एक दिन की अनुमति दी तब से यह त्योहार सिमट कर एक दिन का हो गया। दूर- दूर से आये सपेरे एक दिन में अपना राह खर्च भी निकालने में असमर्थ हो गए और एक से अधिक दिन सांपों को रखने के कारण वन्य विभाग की कड़भ् नजर उनपर पड़ने लगी तब से सपेरे कम आने लगे हैं। यहां के गुप्तेश्वर मंदिर में इस बार भी पूजन के लिए विशेष आयोजन किया गया है। मंदिर में शिवजी का श्रृंगार नागों से किया जायेगा और मंदिर के बाहर नागदेवता वाले सपेरे भी बुलाये गए हैं। भक्त यहां सामान्य और विशेष पूजन कर सकते हैं दोनों की व्यवस्था है।

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

उधार से






गुनगुनाती गुई आती है फलक से बूंदें
फ़िर कोई बदली तेरी पाजेब से टकराई है.

















बारिश को देख रह नही गया तो कुछ लाइन उधर की ली कुछ तस्वीरें भी .....

छत टपकती है और घर में ' वो ' मेहमान है
पानी - पानी हो रही है आबरू बरसात में ।









मंगलवार, 7 जुलाई 2009

गुडिया नए ज़माने की





















बचपन में गुडिया से हर किसी का सामना होता ही है। विशेषरूप से लड़कियां तो हमेशा उनकी शादी - विवाह और दूसरी चिन्ताओ में व्यस्त रहती है। गुडिया के नए ठाट तो देखिये.




बुधवार, 1 जुलाई 2009

मैंने देखा कर्नाटक







पिछले दिनों मुझे कर्नाटक जाने का अवसर मिला. जैसा सोचा था उससे अलग लगा वह प्रदेश. हिंदी के प्रति उनका ममत्व आह्लादित कर गया. मैंने वहां धरवार और हुबली सिटी देखा. सबसे ज्यादा अच्छा लगा - लोगें का प्यार. हिंदी प्रदेश की कहकर उन्होंने जो प्यार दिया . उसका कोई जवाब नहीं. सब अपने घर बुलाना चाह रहे थे. हर कोई बात करना चाह रहा था. मुख्या रूप से मैंने उनकर झील, रूपकला बेट्टी और एक आश्रम देखा. केले के पत्तें पर खाना खाना मेरे इए रोमांचक अनुभव था .
उनकर झील में विवेकानंद स्मारक बना है. यह कन्या कुमारी के तर्ज पर बना है . हुबली ब्यवसायिक सिटी है. पर प्रकृति से दूर नहीं है. कलि मिटटी वाली हुबली में चावल की खेती होती होती है. इश्वर में लोगों की आस्था अधिक है. कभी मौका मिले तो जरुर जाएँ. नारियल के पेड़ों से सजे घर आपका स्वागत करेंगे. है
मेरे खिचे फोटो तो अभी नहीं डाल पा रही हू . पर इन फोटो से आप हुबली को देख सकते हो. यहाँ उनकर झील, साईबाबा मंदिर , कृषण मंदिर और एक देवी मंदिर की फोटो है.