सोमवार, 30 मार्च 2009

कसम की किस्म

हमारे देश में कसमो का बड़ा महत्व है । लोग माँ - बाप और भगवन की कसमे खाकर अपनी सच्चाई का प्रमाण देते हैं। माना जाता है की कसम खाकर बोलने वाला सच ही कहता है। वीरेन डंगवाल की एक कविता पढ़ी , कुछ खास किस्म की कसमो का जिक्र है, आप भी पढिये
rani मुखर्जी और ब्लैक की कसम
सानिया मिर्जा के हुनर की कसम
चुनाव आयोग के धैर्य की कसम
सिब्ते रजी के काले चश्मे की कसम
मैं हूँ बहुत आश्वस्त थोड़ा सा पस्त
पुरे रंगीन मुगल आजम की कसम
बूटा सिंह की बुतों की कसम
मिलावटी तेल के खेल की कसम
आसाराम बापू के हरिओम की कसम
वो नमक कंडोम की कसम
मैं हूँ मास्टर ब्लास्टर पंकज चतुर्वेदी का फैन

सोमवार, 9 मार्च 2009

महिला दिवस कुछ सवाल





कल महिला दिवस था । इक्कीसवी सदी की नारी का जिक्र आते ही हमारे मन में एक सुपर पावर वुमेन की तस्वीर उभरती है। जो हर क्षेत्र में सफलता का परचम लहरा रही है। यह सही है स्त्री ने घर की चहारदीवारी से बाहर निकल कर अनंत आकाश तक का सफर तय कर लिया है। किरण बेदी, कल्पना चावला, सानिया मिर्जा से प्रतिभा पाटिल तक के उदाहरण समाज को देखने को मिले, पर क्या ये काफी हैं? महिलाएं समाज का आधा हिस्सा हैं और उनके लिए केवल एक दिन ? बाकी के दिन किसके हैं। महिला दिवस पर एक दिन महिलाओं का है, बोलकर कई सारे आयोजन कर, शासन- प्रशासन और सामाजिक कार्यकर्ता की कुर्सी पर बैठे लोग अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। उनकी नजर में महिलाओं के पास भी पुरुषों के समान अधिकार तथा दायित्व हैं। आज महिलाओं के लिए समाज में मान-सम्मान के साथ ही कानून और सुरक्षा के आयाम बढ़े हैं।
आज की नारी के लिए बस इतना ही-
कर पदयात अब मिथ्या के मस्तक पर
सत्यांवेश के पथ पर निकलो नारी
तुम बहुत दिनों तक बनी रही दीप कुटिया का
अब बनो क्रांति के ज्वाला की चिंगारी।
कैसे हुई महिला दिवस की शुरूआत
आज से एक सौ एक साल पहले 1908 में न्यूयॉर्क में महिलाओं ने अपने हक के लिए आवाज उठाई थी। वोट डालने के अधिकार, समान वेतन और काम के घण्टे कम करने के लिए 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क की सड़कों पर आन्दोलन किया था। इस लड़ाई में बहुत सी महिलाए· आहत हुई थीं। बाद में पुरुष वर्चस्व को विवश होकर महिलाओं को उनका अधिकार देना पड़ा।तीन साल के बाद 1911 में आठ मार्च का यह दिन जर्मनी में महिला दिवस के रूप में मनाया गया। बाद में इस दिन को महिला दिवस के रूप में मान्यता मिल गई। पूरे संसार में 8 मार्च का दिन महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में 1952 से इसे मनाया जा रहा है।

पहल जरुरी
पिछले दशकों में स्त्रियों का उत्पीड़न रोकने और उन्हें उनके हक दिलाने के बारे में बड़ी संख्या में कानून पारित हुए हैं। अगर इतने कानूनों का सचमुच पालन होता तो भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव और अत्याचार अब का खत्म हो जाना था। लेकिन पुरूष प्रधान मानसिकता के चलते यह संभव नहीं हो सका है। हमे कोशिश करनी चाहिए की इस दिशा में कुछ हो।

सोमवार, 2 मार्च 2009

नये पुराने का संगम जयपुर




कई दिनों से मैं ब्लॉग की दुनिया से गायब रही। दरअसल इन दिनों मैं ेजयपुर गई थी। भारतीय साहित्य परिषद राजस्थान की तरफ से मुझे सरला अग्रवाल कहानी प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार मिला। इस दौरान मैंने जयपुर का भ्रमण भी किया। जयपुर में जो मुझे सबसे खास बात नजर आई वो थी वहांॅ के लोगों का अपनापन। उससे मैं अभिभूत हो गई। हर तरफ वहां मुझे ऐसे लोग मिले जो सेवा को तत्पर हों। अपने राज्य में आये अतिथि का सब ध्यान रखना चाह रहे थे। भले ही वो साहित्य से जुड़े हों या न हों। जब भी मुझे किसी मदद कीजरूरत आयी परेशान होने की आवश्यकता ही नहीं रही। किसी नई जगह का यह अपनापन देख सबसे पहले यह सवाल सामने आया ऐसा हर जगह क्यों नहीं? हालांकि कुछ जगह दिक्कत भी हुई दुकानों में तो टुरिस्टों को लुटने की पूरी तैयारी रहती है।पर लोगों का अपनापन देखकर यह कुछ विशेष नहीं खला। इसके अलावा यह भी खास है कि जयपुर बदल रहा है। बहुत तेजी से। मॉल की संस्कृति में राजस्थान वाली खासियत गुमसुम ही दिखी। पुराने पिंकसिटी में भी पुरानेपन के उपर नये पन को लपेटा जा रहा है। नये पराने जयपुर में काफी अंतर दिखा। जैसे किसी शहर का 20 साल पुराना और आधुनिक रूप एक साथ देख्ा रहे हाें। गली सामने गली और दरवाजे के सामने दरवाजे का सिद्धांत पसंद आया।यह भी एक प्रकार का भूलभुलैया ही है।